लेखनी कविता - सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं - फ़िराक़ गोरखपुरी
सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं / फ़िराक़ गोरखपुरी
सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
यूँ तो हंगामा उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुजरी, तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं
ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती ना यागानों में, ना बेगानों में
लेकिन इस ज़लवागाह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं
बदगुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त, जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुऐ मिलना कोई मिलना भी नहीं
शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह, मुझसे तो मेरी रंजिश-ए-बेजां भी नहीं
बात ये है कि सूकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज़-ए-ज़िन्दान भी नहीं, वुसत-ए-सहरा भी नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते, कि "फ़िराक"
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं